Wednesday, September 28, 2016

अध्याय १ - भाग २

सम्पूर्ण चरक संहिता (हिंदी अनुवाद)

सूत्रस्थान

प्रथम अध्याय (भाग दो)

समस्त शुभ गुण तथा देवता अग्निवेश आदि ऋषियों में प्रविष्ट हुए।

उनके बनाए शास्त्र पृथ्वी पर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए।

हित, अहित, सुख, दुःख ऐसी चार प्रकार की आयु है। इस आयु का जिस शास्त्र में हित-अहित, पथ्यापथ्य एवं मान-परिमाण वर्णन हो उसे ही आयुर्वेद कहते हैं।

शरीर, आत्मा, मन, दृष्टा, भोक्ता, जीव एवं ईश्वर इन सबका जो संयोग है उसे ही आयु कहते हैं। निरंतर चलने वाला होने से यह 'आयु' कहलाता है।

यह आयुर्वेद परम पुण्यकारक है तथा यह लोक और परलोक दोनों का हित करने वाला है ऐसा विद्वानों का मत है।

सभी पदार्थों का सब कालों में 'सामान्य रहना' वृद्धि करने वाला होता है एवं 'विशेष (विकार अथवा विपरीत) हो जाना' नाश का कारण बनता है। सभी कालों में शरीर में दोनों ही धर्म विद्यमान रहते हैं इसलिए शरीर की वृद्धि और क्षय शरीर का बनना और शरीर का टूटना दोनों ही होते रहते हैं। एकत्व बतलाने वाला धर्म 'सामान्य' और पृथकत्व बतलाने वाला धर्म 'विशेष' कहलाता है।

मन, चेतना और शरीर का जो संयोग है उसे ही लोक कहते हैं। ये तीनों मिलकर लोक को धारण किए हुए हैं।

पञ्चमहाभूत, आत्मा, काल, और दिशा ये द्रव्यों का संग्रह हैं। इन्द्रियों के संसर्ग से द्रव्य चेतन हैं तथा इन्द्रियों के अभाव से द्रव्य अचेतन हैं।

इन्द्रियों के गुण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध), गुरु-लघु का ज्ञान, इच्छा-प्रयत्न और परादि अभ्यास ये 'गुण' कहलाते हैं।

प्रयत्न जन्य चेष्टा 'कर्म' कहलाती है।

पृथ्वी आदि द्रव्यों का अपने गुणों से अलग ना होना 'समवाय' है। अर्थात द्रव्य अपने गुणों के बिना एवं गुण अपने द्रव्यों के बिना नहीं रह सकते।

जिसपर कर्म और गुण आश्रित हैं वह 'द्रव्य' है।

गुण निर्गुण होते हैं उनका अपना कोई गुण नहीं होता।

जो द्रव्य का आश्रय लेकर रहता है तथा जिसके कारण संयोग और विभाग होता है 'कर्म' कहलाता है। कर्म किसी अन्य कर्म की अपेक्षा नहीं करता।

इस प्रकार सामान्य आदि छः कारणों का वर्णन किया गया है। अब उनका कार्य कहा जाता है। इस शास्त्र में 'धातुओं का साम्य करना' ही कार्य है। इस शास्त्र का प्रयोजन भी धातुओं को समान रखना ही है।

क्षीण हुए धातु को बढ़ाना चाहिए और समान धातु का रक्षण किया जाना चाहिए।

काल (समय ऋतु आदि), बुद्धि और इन्द्रियों के अर्थ (शब्द, स्पार्ह, रूप, रस एवं गंध) इन तीनों के अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग होने से दोनों प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं।

शरीर और मन ये ही दोनों रोगों की अधिष्ठान भूमि है। इसी प्रकार से सुखों का आश्रय भी ये ही दोनों हैं।

आत्मा चूँकि सब क्रियाओं की साक्षी है इसलिए वही मन, शब्दादिगुण और चैतन्य का कारण है। अचेतन शरीर और मन को यह नित्य तथा सनातन आत्मा ही चैतन्य बनाती है।

शरीर के जितने भी दोष हैं उन सबके होने के कारण वात, पित्त और कफ हैं एवं मानसिक रोगों के कारण सत, रज और तम हैं।

शारीरिक दोष दैव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय औषधियों से शांत हो जाते हैं तथा मानसिक दोषों का निवारण ज्ञान-विज्ञानं, शास्त्रज्ञान, चित्त की दृढ़ता, समाधि एवं विषयों से मन को हटाकर आत्मा में लगाने से हो जाता है।


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