Wednesday, September 28, 2016

अध्याय १ - भाग ३

सम्पूर्ण चरक संहिता (हिंदी अनुवाद)

सूत्रस्थान

प्रथम अध्याय (भाग तीन)

वात अर्थात वायु रुखा, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल एवं कठोर है इसका शमन इनसे विपरीत गुण वाले स्निग्ध, ऊष्ण, गुरु, स्थिर एवम मृदु द्रव्यों से होता है।

पित्त स्निग्ध (चिकना), ऊष्ण, तीक्ष्ण, द्रव, अम्ल, चल और कटु रस है। पित्त का शमन इन गुणों से विपरीत गुणों वाले पदार्थों से होता है।

कफ शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर, स्थिर और पिच्छिल गुणों वाला होता है एवं इसका शमन इन गुणों से विपरीत गुणों वाले पदार्थों से होता है।


विपरीत गुण वाले द्रव्यों की देश-काल एवं मात्रा के अनुसार योजना करने पर औषधियों से रोगों का शमन होता है परंतु असाध्य रोग औषधियों से न तो अच्छे होते हैं एवं ना ही उनके लिए औषधियों का उपदेश किया जाता है

रसनेंद्रियों से ग्राह्य गुण रस है। इस रस की उत्पत्ति में आधार कारण जल और पृथ्वी हैं। इस रस के भेद करने में आकाश, वायु और अग्नि ये तीनों निमित्त होते हैं। वास्तव में रस की उत्पत्ति स्थान जल है और पृथ्वी इसका आधार है। क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में मिल जाता है। जल और पृथ्वी में आकाश, वायु और अग्नि का भी अंश समाविष्ट रहता है। इसीलिए एक रस के छः भेद हो जाते हैं जैसे पृथ्वी और जल की अधिकता से मधुर, पृथ्वी और अग्नि की अधिकता से अम्ल, जल और अग्नि की अधिकता से लवण, वायु और अग्नि की अधिकता से कटु, वायु और आकाश की अधिकता से तिक्त और वायु और पृथ्वी की अधिकता से कषाय रस बनता है।

स्वादु, मधुर, अम्ल, लवण, कटु, टिकट और कषाय संक्षेप से ये छः रस हैं। परस्पर इनके संयोग से ६३ भेद हो जाते हैं।

स्वादु, अम्ल और लवण ये रस वायु का शमन करते हैं, कषाय, मधुर और टिकट पित्त को तथा कषाय, कटु और तिक्त रस कफ को शांत करते हैं। कटु, अम्ल और लवण रस पित्त को कुपित करते हैं, स्वादु, मधुर, अम्ल और लवण रस कफ को और कटु, तिक्त और कषाय रस वायु को बढ़ाते हैं।

द्रव्य तीन प्रकार के होते हैं। प्रथम - कुछ द्रव्य वात आदि दोषों का शोधन एवं शमन करते हैं जैसे तैल वायु का, घी पित्त का और मधु कफ का। द्वितीय - कुछ द्रव्य वातादि दोषों को कुपित करने वाले होते हैं एवं तृतीय - स्वास्थ्य का रक्षण करने वाले होते हैं जैसे लाल चावल, जीवंती शाक इत्यादि।

द्रव्य फिर तीन प्रकार के हैं। प्रथम - (जङ्गम) प्राणियों से उत्पन्न होने वाले जैसे मधु एवं घी आदि, द्वितीय - (औद्भिद) भूमि के भेदन करके पृथ्वी में से उत्पन्न होने वाले तथा तृतीय - (पार्थिव) भूमि से उत्पन्न होने वाले खनिज।

स्वर्ण और इसका मल (शिलाजीत) पांच प्रकार के लौह जैसे रांगा, सीसा, ताम्बा, चांदी और लोहा, बालू, चूना, लवण, सैंधव आदि ये पार्थिव औषध कहे गए हैं। औद्भिद द्रव्य चार प्रकार के कहे गए हैं। वनस्पति, विरुत, वानस्पत्य और औषधि। 

जिसमें बिना पुष्प के फल आता है वे वनस्पति कहे गए हैं जैसे गूलर एवं वट आदि, जिनमें फल और पुष्प दोनों आते हैं उन्हें वानस्पत्य अथवा वृक्ष कहते हैं जैसे आम जामुन आदि एवं जो फल आने पर नष्ट हो जाते हैं उन्हें औषधि कहते हैं जैसे धान, चावल, जौ एवं गेंहू आदि। 

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अध्याय १ - भाग २

सम्पूर्ण चरक संहिता (हिंदी अनुवाद)

सूत्रस्थान

प्रथम अध्याय (भाग दो)

समस्त शुभ गुण तथा देवता अग्निवेश आदि ऋषियों में प्रविष्ट हुए।

उनके बनाए शास्त्र पृथ्वी पर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए।

हित, अहित, सुख, दुःख ऐसी चार प्रकार की आयु है। इस आयु का जिस शास्त्र में हित-अहित, पथ्यापथ्य एवं मान-परिमाण वर्णन हो उसे ही आयुर्वेद कहते हैं।

शरीर, आत्मा, मन, दृष्टा, भोक्ता, जीव एवं ईश्वर इन सबका जो संयोग है उसे ही आयु कहते हैं। निरंतर चलने वाला होने से यह 'आयु' कहलाता है।

यह आयुर्वेद परम पुण्यकारक है तथा यह लोक और परलोक दोनों का हित करने वाला है ऐसा विद्वानों का मत है।

सभी पदार्थों का सब कालों में 'सामान्य रहना' वृद्धि करने वाला होता है एवं 'विशेष (विकार अथवा विपरीत) हो जाना' नाश का कारण बनता है। सभी कालों में शरीर में दोनों ही धर्म विद्यमान रहते हैं इसलिए शरीर की वृद्धि और क्षय शरीर का बनना और शरीर का टूटना दोनों ही होते रहते हैं। एकत्व बतलाने वाला धर्म 'सामान्य' और पृथकत्व बतलाने वाला धर्म 'विशेष' कहलाता है।

मन, चेतना और शरीर का जो संयोग है उसे ही लोक कहते हैं। ये तीनों मिलकर लोक को धारण किए हुए हैं।

पञ्चमहाभूत, आत्मा, काल, और दिशा ये द्रव्यों का संग्रह हैं। इन्द्रियों के संसर्ग से द्रव्य चेतन हैं तथा इन्द्रियों के अभाव से द्रव्य अचेतन हैं।

इन्द्रियों के गुण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध), गुरु-लघु का ज्ञान, इच्छा-प्रयत्न और परादि अभ्यास ये 'गुण' कहलाते हैं।

प्रयत्न जन्य चेष्टा 'कर्म' कहलाती है।

पृथ्वी आदि द्रव्यों का अपने गुणों से अलग ना होना 'समवाय' है। अर्थात द्रव्य अपने गुणों के बिना एवं गुण अपने द्रव्यों के बिना नहीं रह सकते।

जिसपर कर्म और गुण आश्रित हैं वह 'द्रव्य' है।

गुण निर्गुण होते हैं उनका अपना कोई गुण नहीं होता।

जो द्रव्य का आश्रय लेकर रहता है तथा जिसके कारण संयोग और विभाग होता है 'कर्म' कहलाता है। कर्म किसी अन्य कर्म की अपेक्षा नहीं करता।

इस प्रकार सामान्य आदि छः कारणों का वर्णन किया गया है। अब उनका कार्य कहा जाता है। इस शास्त्र में 'धातुओं का साम्य करना' ही कार्य है। इस शास्त्र का प्रयोजन भी धातुओं को समान रखना ही है।

क्षीण हुए धातु को बढ़ाना चाहिए और समान धातु का रक्षण किया जाना चाहिए।

काल (समय ऋतु आदि), बुद्धि और इन्द्रियों के अर्थ (शब्द, स्पार्ह, रूप, रस एवं गंध) इन तीनों के अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग होने से दोनों प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं।

शरीर और मन ये ही दोनों रोगों की अधिष्ठान भूमि है। इसी प्रकार से सुखों का आश्रय भी ये ही दोनों हैं।

आत्मा चूँकि सब क्रियाओं की साक्षी है इसलिए वही मन, शब्दादिगुण और चैतन्य का कारण है। अचेतन शरीर और मन को यह नित्य तथा सनातन आत्मा ही चैतन्य बनाती है।

शरीर के जितने भी दोष हैं उन सबके होने के कारण वात, पित्त और कफ हैं एवं मानसिक रोगों के कारण सत, रज और तम हैं।

शारीरिक दोष दैव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय औषधियों से शांत हो जाते हैं तथा मानसिक दोषों का निवारण ज्ञान-विज्ञानं, शास्त्रज्ञान, चित्त की दृढ़ता, समाधि एवं विषयों से मन को हटाकर आत्मा में लगाने से हो जाता है।


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Tuesday, September 27, 2016

अध्याय १ - भाग १

सम्पूर्ण चरक संहिता (हिंदी अनुवाद)

सूत्रस्थान

प्रथम अध्याय (भाग एक)

यहां से "दीर्घजीवितीय" अध्याय का व्याख्यान किया जाता है।

ऐसा हो भगवान आत्रेय ने कहा।

लंबी आयु की जीवन की इच्छा लिए भरद्वाज मुनि देवों के राजा इंद्र के पास पहुंचे।

सबसे पहले ब्रह्मा ने आयुर्वेद का उपदेश किया था जिसे प्रजापति दक्ष ने ग्रहण किया। दक्ष से यह ज्ञान अश्विनीकुमारों ने एवं अश्विनीकुमारों से इसे इंद्र ने ग्रहण किया। इसी कारण से मुनि भरद्वाज इंद्र के पास आए।

जब तप, ब्रह्मचर्य आयु इत्यादि में विघ्न करने वाले रोग उत्पन्न हुए तब प्राणियों के हित के लिए पुण्यात्मा महर्षिगण हिमालय के पीछे इकट्ठे हुए।

अंगिरा, जमदग्नि, वसिष्ठ एवं कश्यप इत्यादि जैसे महान तेजस्वी महर्षि वहां सुख से विराजकर इस पुण्यशाली कथा को इस प्रकार से कहने लगे।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के मूल में आरोग्य ही है। रोग इस आरोग्य एवं आयु का नाश करने वाले हैं। मानवों के लिए ये रोग बड़े विघ्नरूप हो उठे हैं अतः इनके शमन का क्या उपाय हो? ऐसा कहकर वे सारे ऋषि ध्यानमग्न हो गए। ध्यान में उन्होंने जान लिया कि देवराज इंद्र ही रोगों की शांति का उपाय बता सकेंगे।

तब प्रश्न उपस्थित हुआ कि देवराज इंद्र के पास जाए कौन? तब सबसे पहले ऋषि भारद्वाज ने कहा कि मुझे यह कार्य दिया जाए। तब अंगिरादि ऋषियों ने भारद्वाज जी को इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिया।

इंद्र के महल में जाकर उन्होंने उनका अभिनन्दन करके कहा कि हे अमर! संसार में सब प्राणियों को भय देने वाली विभिन्न व्याधियां उत्पन्न हो गयी हैं अतः आप इनकी शांति का उपाय बताएं।

तब इंद्र ने भरद्वाज जी को बहुत बुद्धिमान जानकर थोड़े ही शब्दों में आयुर्वेद का उपदेश दिया।

हेतु (रोग काकारण), लिंग (लक्षण) एवं औषध का ज्ञान कराने वाले इस आयुर्वेद का स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों प्रकार के प्राणियों के ही लिए पितामह ब्रह्मा ने ज्ञान किया फिर इस तीन सूत्र (वात, पित्त एवं कफ) वाले पुण्यशाली श्रेष्ठ और सनातन आयुर्वेद का इंद्र ने उपदेश किया। महामति भारद्वाज जी ने एकाग्र होके इस अनंत-अपार तीन स्कन्ध वाले आयुर्वेद को शीघ्र ही जान लिया।

महर्षि भरद्वाज जी ने आयुर्वेद के द्वारा ही दीर्घायु प्राप्त की एवं उन्होंने अन्य ऋषियों को भी आयुर्वेद जस का तस ज्ञान कराया।

अन्य ऋषियों ने भी इसे जाना और हितकारी पदार्थों का सेवन कर और अहितकारी पदार्थों का त्याग कर आरोग्य और दीर्घ आयु को प्राप्त किया।

तत्पश्चात सब प्राणियों में मैत्री बुद्धि रखने वाले पुनर्वसु आत्रेय ने इस पवित्र आयुर्वेद का छः शिष्यों अग्निवेश, भेड, जतूकर्ण, पराशर, हारीत एवं क्षारपाणि को उपदेश किया।

शिष्य अग्निवेश ने आत्रेय मुनि के उपदेश में कोई अंतर ना करते हुए सबसे पहले आयुर्वेद-तंत्र की रचना की इसके बाद भेड आदि शिष्यों ने भी अपने-अपने तंत्र बनाकर आत्रेय मुनि को प्रस्तुत किये। इन्हें सुनकर मुनि आत्रेय बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उन सबके कार्यों का अनुमोदन किया। सबने एकसाथ उच्च स्वर से उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि आपने प्राणियों पर बहुत उत्तम रूप से दया की है। स्वर्ग में देवों सहित नारद आदि देवर्षियों ने भी ऋषियों के शब्दों को सुना और वे सब भी बड़े प्रसन्न हुए। समस्त प्राणियों ने हर्ष से प्रेमसहित गंभीर शब्दों में साधुवाद किया। इस साधुवाद की ध्वनि आकाश में सर्वत्र फ़ैल गई  और सुखदायक वायु बहने लगी। सब दिशाएं प्रकाशित हो उठीं और दिव्य कुसुमों की वर्षा होने लगी।
 

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