Tuesday, September 27, 2016

अध्याय १ - भाग १

सम्पूर्ण चरक संहिता (हिंदी अनुवाद)

सूत्रस्थान

प्रथम अध्याय (भाग एक)

यहां से "दीर्घजीवितीय" अध्याय का व्याख्यान किया जाता है।

ऐसा हो भगवान आत्रेय ने कहा।

लंबी आयु की जीवन की इच्छा लिए भरद्वाज मुनि देवों के राजा इंद्र के पास पहुंचे।

सबसे पहले ब्रह्मा ने आयुर्वेद का उपदेश किया था जिसे प्रजापति दक्ष ने ग्रहण किया। दक्ष से यह ज्ञान अश्विनीकुमारों ने एवं अश्विनीकुमारों से इसे इंद्र ने ग्रहण किया। इसी कारण से मुनि भरद्वाज इंद्र के पास आए।

जब तप, ब्रह्मचर्य आयु इत्यादि में विघ्न करने वाले रोग उत्पन्न हुए तब प्राणियों के हित के लिए पुण्यात्मा महर्षिगण हिमालय के पीछे इकट्ठे हुए।

अंगिरा, जमदग्नि, वसिष्ठ एवं कश्यप इत्यादि जैसे महान तेजस्वी महर्षि वहां सुख से विराजकर इस पुण्यशाली कथा को इस प्रकार से कहने लगे।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के मूल में आरोग्य ही है। रोग इस आरोग्य एवं आयु का नाश करने वाले हैं। मानवों के लिए ये रोग बड़े विघ्नरूप हो उठे हैं अतः इनके शमन का क्या उपाय हो? ऐसा कहकर वे सारे ऋषि ध्यानमग्न हो गए। ध्यान में उन्होंने जान लिया कि देवराज इंद्र ही रोगों की शांति का उपाय बता सकेंगे।

तब प्रश्न उपस्थित हुआ कि देवराज इंद्र के पास जाए कौन? तब सबसे पहले ऋषि भारद्वाज ने कहा कि मुझे यह कार्य दिया जाए। तब अंगिरादि ऋषियों ने भारद्वाज जी को इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिया।

इंद्र के महल में जाकर उन्होंने उनका अभिनन्दन करके कहा कि हे अमर! संसार में सब प्राणियों को भय देने वाली विभिन्न व्याधियां उत्पन्न हो गयी हैं अतः आप इनकी शांति का उपाय बताएं।

तब इंद्र ने भरद्वाज जी को बहुत बुद्धिमान जानकर थोड़े ही शब्दों में आयुर्वेद का उपदेश दिया।

हेतु (रोग काकारण), लिंग (लक्षण) एवं औषध का ज्ञान कराने वाले इस आयुर्वेद का स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों प्रकार के प्राणियों के ही लिए पितामह ब्रह्मा ने ज्ञान किया फिर इस तीन सूत्र (वात, पित्त एवं कफ) वाले पुण्यशाली श्रेष्ठ और सनातन आयुर्वेद का इंद्र ने उपदेश किया। महामति भारद्वाज जी ने एकाग्र होके इस अनंत-अपार तीन स्कन्ध वाले आयुर्वेद को शीघ्र ही जान लिया।

महर्षि भरद्वाज जी ने आयुर्वेद के द्वारा ही दीर्घायु प्राप्त की एवं उन्होंने अन्य ऋषियों को भी आयुर्वेद जस का तस ज्ञान कराया।

अन्य ऋषियों ने भी इसे जाना और हितकारी पदार्थों का सेवन कर और अहितकारी पदार्थों का त्याग कर आरोग्य और दीर्घ आयु को प्राप्त किया।

तत्पश्चात सब प्राणियों में मैत्री बुद्धि रखने वाले पुनर्वसु आत्रेय ने इस पवित्र आयुर्वेद का छः शिष्यों अग्निवेश, भेड, जतूकर्ण, पराशर, हारीत एवं क्षारपाणि को उपदेश किया।

शिष्य अग्निवेश ने आत्रेय मुनि के उपदेश में कोई अंतर ना करते हुए सबसे पहले आयुर्वेद-तंत्र की रचना की इसके बाद भेड आदि शिष्यों ने भी अपने-अपने तंत्र बनाकर आत्रेय मुनि को प्रस्तुत किये। इन्हें सुनकर मुनि आत्रेय बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उन सबके कार्यों का अनुमोदन किया। सबने एकसाथ उच्च स्वर से उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि आपने प्राणियों पर बहुत उत्तम रूप से दया की है। स्वर्ग में देवों सहित नारद आदि देवर्षियों ने भी ऋषियों के शब्दों को सुना और वे सब भी बड़े प्रसन्न हुए। समस्त प्राणियों ने हर्ष से प्रेमसहित गंभीर शब्दों में साधुवाद किया। इस साधुवाद की ध्वनि आकाश में सर्वत्र फ़ैल गई  और सुखदायक वायु बहने लगी। सब दिशाएं प्रकाशित हो उठीं और दिव्य कुसुमों की वर्षा होने लगी।
 

Previous | Next

No comments:

Post a Comment